सरलभाषा संस्कृतम्

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सोमवार, 18 अप्रैल 2016

अष्टाध्यायी

वृद्धिरादैच् १/१/१

काशिका -वृद्धिशब्दः संज्ञात्वेन विधीयते, प्रत्येकम् आदैचां वर्णानां सामान्येन तद्भावितानाम्, अतद्भावितानां च। तपरकरणम् ऐजर्थम् तादपि परः तपरः इति, खट्वैडकादिषु त्रिमात्रचतुर्मात्रप्रसङ्ग-निवृत्तये। आश्वलायनः। ऐतिकायनः। औपगवः। औपमन्यवः। शालीयः। मालीयः। वृद्धिप्रदेशाः -- {सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु (७।२।१)} इत्येवम् आदयः॥

सिद्धि १ आश्वलायनः(अश्वलायन का पुत्र)
अश्वल + फक्
आश्वल + आयन
आश्वलायन + सु
आश्वलायनः ।।
यहाँ अश्वल शब्द से अपत्य अर्थ में "नडादिभ्य: फक् "(४/१/८८) से फक् प्रत्यय 'आयनेय..(७/१/२) से फ के स्थान में आयन आदेश और 'किति च '(७/१/११८)से आदि वृद्धि होती है ।

सिद्धि २ शालीय: (शाला में रहने वाला गृहस्थ )
शाला + छ
शाल् + ईय
शालीय + सु
शालीय: ।।
यहाँ शाला शब्द के आदि में वृद्धिसंज्ञक आकार के होने से उसकी " वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद् वृद्धम् "(१/१/७३) से वृद्ध संज्ञा होकर "वृद्धाच्छ: "(४/१/११४) से छ प्रत्यय होता है । छ के स्थान में आयनेय..(७/१/२)से ईय आदेश होता है ।
ऐसे ही माला शब्द से -मालीय: (माला में रहने लाला पुष्प)

सिद्धि ३ऐतिकायन: (इतिक का पुत्र)
इतिक + फक्
ऐतिक + आयन
ऐतिकायन + सु
ऐतिकायन: ।।
यहाँ इतिक शब्द से अपत्य अर्थ में "नडादिभ्य: फक्  "(४/१/८८) से फक् प्रत्यय, आयनेय ..(७/२/११८) से आदि वृद्धि होती है ।

सिद्धि ४ औपगव: (उपगु का पुत्र)
उपगु + अण्
औपगो + अ
औपगव + सु
औपगव: ।।
यहाँ उपगु शब्द से अपत्य अर्थ में "तस्यापत्यम् "(४/१/९२) से अण् प्रत्यय और "तद्धितेष्वचामादे: "(७/२/११७) से आदि वृद्धि होती है । यहाँ "ओर्गुण: "(६/४/१४६) से उपगु के अन्त्य उकार को गुण हो जाता है ।

{विशेष} --आदैच पद के मध्य में "त " किसलिए लगाया गया है? आ+ त् + ऐच् ।अष्टाध्यायी में अनेक स्थानों पर "त " लगाकर वर्णों का निर्देश किया गया है ।उन वर्णों तपर कहते हैं। यहां आ और ऐच् के मध्य में त् लगाया गया है । इसलिए देहली दीपक न्याय से आ और ऐच्  दोनों तपर है ।जैसे घर देहली पर रखा हुआ दीपक दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाता है ,वैसे यहां दोनों के मध्य में विद्यमान त,आ और ऐच्  दोनों को तपर करता है ।" त परो यस्मात् स तपर:,तादपि परस्तपर: । " जिससे त परे है उसे तपर कहते हैं और जो त से परे है वह भी तपर कहलाता है ।अष्टाध्यायी में वर्णों को तपर करने का प्रयोजन यह है कि "तपरस्तत्कास्य " अर्थात तपर वर्ण तत्काल के ग्राहक होते हैं ।हृस्व,दीर्घ, प्लुत जिस भी काल के वर्ण के साथ त् लगाया जाता है वह उसी काल के उदात्त,अनुदात्त, स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक वर्णों का ग्राहक होता है ।

इस प्रकार तपर वर्ण अपने ६ प्रकार के स्वरूप का ग्रहण करता है, शेष का नहीं ।अतः यहां छह प्रकार के आकार ऐकार और औकार की वृद्धि संज्ञा का विधान किया है ।
इसे निम्नलिखित अकार के १८ भेदों की रीति से यथावत् समझ लेना चाहिए -----

    स्वर      हृस्व    दीर्घ     प्लुत
१ उदात्त     अ      आ       अ३
२अनुदात्त   अ      आ       अ३
३स्वरित      अ      आ       अ३
( निरनुनासिक)
४ उदात्त     अ ँ   आ ँ  अ ँ३
५अनुदात्त   अ ँ   आ ँ  अ ँ३
६ स्वरित    अ  ँ  आ ँ  अ ँ ३
(सानुनासिक)
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