सरलभाषा संस्कृतम्

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बुधवार, 27 अप्रैल 2016

लघुसिद्धान्तकौमुदी


आदिरन्त्येन सहेता ४, १।१।७१
अन्त्येनेता सहित आदिर्मध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् यथाणिति अ इ उ वर्णानां संज्ञा। एवमच् हल् अलित्यादयः॥

अर्थ - अन्त्य इत् से युक्त आदिवर्ण, मध्यगत वर्णों की तथा अपनी संज्ञा हो ।जैसे- "अण् "यह अ,इ,उ,वर्णों की संज्ञा है । इसी प्रकार अक्, अच्,हल्, अल् आदि भी जान लेना चाहिये ।
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व्याख्या --आदि।१।१ अन्त्येन ।३।१ सह-इत्यव्ययपदम् । इता ।३।१ स्वस्य ।६।१ ["स्व रुप शब्दस्याशब्दसंज्ञा "से । "स्वम् "यह प्रथमान्त पद आकर विभक्ति-विपरिणाम से षष्ठ्यन्त हो जाता है]
यह सूत्र संज्ञाधिकार के बीच पढ़ा जाने से संज्ञा सूत्र है । यहाँ "अन्त्येनेता सहादि "अर्थात् "अन्त्य इत् से युक्त आदि "यह संज्ञा है । अब संज्ञी का निर्णय करना है कि संज्ञी कौन हो? क्योंकि सूत्र में तो किसी का निर्देश ही नहीं । आदि और अन्त्य अव्यय शब्द हैं । अवयवों से अवयवी लाया जाता है । अतः यहाँ अवयवी ही संज्ञी होगा । उस अवयवी(समुदाय) से आदि और अन्त्य संज्ञा होने के कारण निकल जायेंगे । शेष मध्यगत वर्ण ही संज्ञी ठहरेंगे । पुनः "स्वस्य "पद की अनुवृत्ति आकर भी संज्ञी हो जाएगा । इसप्रकार आदि तथा मध्यगत वर्ण संज्ञी बनेंगे । तो अब इस सूत्र का अर्थ यह हुआ--(अन्त्येन )अन्त्य (इता) इत् से (सह)युक्त (आदि)आदि वर्ण(स्वस्य)अपनी तथा मध्यगत वर्णों की संज्ञा होता है । यहाँ हमने "स्वस्य "पद से आदि का ग्रहण किया है, पर कोई पूछ सकता है कि "स्वस्य "पद से अन्त्य का ग्रहण कर "अन्त्य इत् "से युक्त आदि अन्त्य तथा मध्यगत वर्णों की संज्ञा हो ,ऐसा अर्थ क्यों न लिया जाये? इसका उत्तर यह है कि "स्व "यह सर्वनाम है । सर्वनाम प्रधान का ही निर्देश कराने वाले होते हैं, अप्रधान के नहीं । "अन्त्येनेता सहादि " यहाँ प्रधान आदि है, अन्त्य नहीं । क्योंकि "सहयुक्तेऽप्रधाने "(२।३।१९)से अप्रधान में ही तृतीया होती है, अतः "स्व "सर्वनाम प्रधान आदि का ही ग्रहण करायेगा,अप्रधान का नहीं ।
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"अइउण् " यहाँ अन्त्य इत् =ण् है । आदि "अ "है । अत: अन्त्य इत् से युक्त आदि "अण् "हुआ । यह संज्ञा है । इ,उ,मध्यगत तथा "अ "आदि ये ३ संज्ञी हैं । इसी प्रकार अच्, अक्, हल् आदि भी जानने चाहिये । यहाँ इस शास्त्र में इनके लिये प्रत्याहार शब्द व्यवहृत होते हैं ।
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यहाँ अन्त्य और आदि 'अइउण् "सूत्रों की अपेक्षा से नहीं लेने, किन्तु मन में रखे समुदाय की अपेक्षा लेने से है । यथा- "इउण् ऋलृक् "इस समुदाय का आदि "इ "और अन्त्य "क् " है ।अन्त्य युक्त आदि =इक् संज्ञा होगी ।" रट्ल "यहाँ उपदेशेऽजनुनासिक इत् "(२८)से लकारस्थ अकार इत् है ।समुदाय का आदि "र् " है अन्त्य" अँ "है । अन्त्ययुक्त आदि र् +अँ ="रँ " यह संज्ञा होगी । इस संज्ञा के "र "और "ल "२ ही संज्ञी है ।
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क्रमशः ..................
अगला सूत्र -ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः। , १।२।२७

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

अष्टाध्यायी सूत्र ३

इको गुणवृद्धि: ।१/१/३

समासः॥

गुणश्च वृद्धिश्च गुणवृद्धी, इतरेतरद्वन्द्वसमासः


अर्थः॥

वृद्धिः स्यात्, गुणः स्यात्, इति गुण-वृद्धि-शब्दाभ्यां यत्र गुण-वृद्धी विधीयते, तत्र इकः इति षष्ट्यन्तं पदम् उपस्थितं द्रष्टव्यम् = तत्र इकः स्थाने भवतः इत्यर्थः।


उदाहरणम्॥

गुण -(इ)जेता, नेता ।
     -(उ)होता,पोता  ।
     -(ऋ)कर्त्ता, हर्ता ।
(इनकी सिद्धि पूर्व में किया जा चुका है ।)

वृद्धि: (इ)अचैषीत्, अनैषित् ।
        (उ)अस्तावीत्, अलावीत् ।
        (ऋ)अकार्षीत्, अहार्षीत् ।

सिद्धि १ अचैषीत् -उसने चुना ।
चि+लुङ्
अट्+चि+च्लि+तिप्
अ+चि+सिच्+ति
अ+चि+स्+ईट्+त्
अ+चै+ष्+ई+त्
अचैषीत् ।।
यहाँ चिञ् चयने धातु से "लुङ् "(३/२/११०)से लुङ् प्रत्यय, "च्लि लुङि "(३/१/४३)से च्लि प्रत्यय," च्ले: सिच् "(३/१/४४) से च्लि के स्थान में सिच् आदेश और "सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु "(७/१/१) से चि धातु के इक् को वृद्धि होती है ।यहां "लुङ्लङ्लृङ्स्वडुदात्त: "(६/४/७१) से ईट् आगम होता है । "आदेशप्रत्यययो: "(८/३/५९)से षत्व होता है । अचैषीत् =उसने चयन किया ।

इसी प्रकार
अनैषीत् -ले गया ।
अस्तावीत् - स्तुति की ।
अलावीत् -काटा ।
अकार्षीत् -किया ।
अहार्षीत्- हरण किया ।
         सिद्ध करें ।

     ★★गुणवृद्धि -तालिका ★★
इक्         गुण      वृद्धि
इ            ए           ऐ
उ           ओ         औ
ऋ          अर्        आर्
लृ            ×          ×


लघुसिद्धान्तकौमुदी


तस्य लोपः ३, १।३।९
तस्येतो लोपः स्यात्। णादयोऽणाद्यर्थाः।

अर्थ-उस इत्संज्ञक का लोप होता है । ण् आदि "अण् "आदि के लिए है ।

व्याख्या -तस्य ६।१
इत् ६।१ [' उपदेशेऽजनुनासिक इत् "सूत्र से "प्रथमान्त "इत् "पद आकर विभक्तिविपरिणाम से षष्ठ्यन्त हो जाता है ।]
लोप १।१
★(तस्य) उस (इत्)इत्संज्ञक का (लोप)लोप होता है ।
अब यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि इस सूत्र में "तस्य "पद न लेते तो भी अर्थ में कोई हानि नहीं हो सकती थी, क्योंकि "इत् "पद की अनुवृत्ति तो आ ही रही है । इसका समाधान यह है कि यदि "तस्य "पद ग्रहण न करते तो इत्संज्ञक के अन्त्य वर्ण का लोप होता, सम्पूर्ण इत्संज्ञक का लोप नहीं होता।
तथाहि- " ञिमिदा स्नेहने, टुनादि समृद्धौ, डुकृञ करणे "यहाँ "आदिर्ञिटुडव "(४६२) सूत्र द्वारा ञि, टु, डु, की इत्संज्ञक होकर लोप प्राप्त होने पर "अलोऽन्त्यस्य "(२१) सूत्र द्वारा अन्त्य इकार,उकार का लोप होता, जो कि अनिष्ट है ।अब यदि सूत्र में "तस्य "पद ग्रहण करते हैं तो यह दोष नहीं आता क्योंकि आचार्य का "तस्य "यह कहना जतलाता है कि आचार्य सारे का लोप चाहते हैं केवल अन्त्य का नहीं ।

अब इस सूत्र से ण्, क्, ड्, च्, आदि इतों का लोप प्राप्त होता है ।इस पर कहते हैं कि इनका लोप नहीं करना है, क्योंकि इनसे अण् आदि प्रत्याहार बनाये जायेंगे । यदि इनका लोप करना होता तो ग्रहण किसलिये करते? अतः इनका लोप नहीं करना चाहिये ।
   अब इत्संज्ञकों से प्रत्याहार बनाने के लिए अग्रिम सूत्र लिखते हैं -------
४ आदिरन्त्येन सहेता ।१।१।७१
क्रमश: .............................................
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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

अष्टाध्यायी सूत्र २

२ अदेङ् गुण:

अत् च एङ् च अदेङ्


अर्थः॥

अ ए ओ इति एतेषां वर्णानां गुणसंज्ञा भवति

★★अदेङ्गुणः। तपरकरणमिह सर्वार्थम्। तेन "गङ्गोदक"मित्यत्र त्रिमात्रो न। "तरती"त्यत्र त्वकार एव, नतु कदाचिदाकारः। नच प्रमाणत आन्तर्येण नियमसिद्धिः, रपरत्वे कृते एकस्याध्यर्धमात्रत्वादपरस्यार्धतृतीयमात्रत्वात्। गुणप्रदेशास्तु-"आद्गुणः" "अतो गुणे" इत्यादयः।

उदाहरणम्॥

अकार: -कर्त्ता, हर्ता ।
एकार: -जेता, नेता ।
ओकार: -होता, पोता ।

सिद्धि १- कर्त्ता
कृ+तृच्
कर् + तृ
कर्तृ +सु
कर्त् अनङ् +स्
कर्तन् + स्
कर्तान् + स्
कर्त्ता ।।
यहाँ डुकृञ् करणे (तनादि. उ.)धातु से "ण्वुल् तृचौ "(३/१/१३३) से तृच् प्रत्यय करने पर "सार्वधातुकार्धधातिकयो: "(७/३/८४) से 'कृ' के ऋ को 'अ 'गुण होता है और वह "उरण रपर: "(१/१/५१) से रपर हो जाता है -अर् ।यहाँ "ऋदुशनस् "(७/१/९४) से कर्तृ के ऋ को अनङ् आदेश ,"सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ "(६/४/८) से नकारान्त की उपधा को दीर्घ "हल्ङ्याभ्याब्यो दीर्घात् ..(६/१/६८) से सु का लोप और "नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य "(८/२/७) से न् का लोप होता है । कर्त्ता ।करने वाला ।। इसी प्रकार हृञ् हरणे (भ्वा.उ.)धातु से "हर्ता "शब्द सिद्ध होता है ।

सिद्धि २ जेता
जि+तृच्
जे+तृ
जेत अनङ् +सु
जेतन्+स्
जेतान्+स्
जेता ।।
यहाँ जि जये (भ्वा. उ.)धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय और "सार्वधातुकार्धधातुकयो: "से 'जि'के 'इ'को ए गुण होता है ।शेष कार्य पूर्ववत् है । इसी प्रकार "णीञ् "प्रापणे "(भ्वा. उ.)धातु से "नेता "शब्द सिद्ध होता है ।

सिद्धि ३ होता
हु+तृच्
हो+तृ
होतृ+सु
होत् अनङ् +सु
होता ।।
यहॉ "हु दानादनयोरादाने चेत्येके(अदा.प.)धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय करने पर "सार्वधातुकार्धधातुकयो: "से हु के 'उ' को 'ओ' गुण होता है ।शेषकार्य पूर्ववत् है । इसी प्रकार पूञ् पवने (क्र्या.उ.)धातु से "पोता शब्द सिद्ध होता है ।

{विशेष}---अदेङ् पद में अ और एङ् के मध्य में त् लगाया गया है । अतः पूर्वोक्त विधि से अ और एङ् दोनों तपर हैं । ये तपर होने से "तपरस्तत्कालस्य "से तत्काल का ग्रहण करते हैं । अत: यहाँ उदात्त, अनुदात्त,स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक भेद से ६ प्रकार के अकार,एकार और ओकार की गुण संज्ञा होती है ।

लघुसिद्धान्तकौमुदीं सूत्र २



२ अदर्शनं लोपः २, १।१।५९
प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात्।
अर्थ -विद्यमान का अदर्शन लोप सञ्ज्ञक होता है ।
व्याख्या -स्थानस्य ६।१[' स्थानेऽन्तरतम "सूत्र से "स्थाने पद आकर विभक्तिविपरिणाम से षष्ठ्यन्त हो जाता है ।]
अदर्शनम् १।१
लोप: १।१
★विद्यमान का सुनाई न देना लोप होता है । यहाँ अदर्शन संज्ञी का तथा लोप संज्ञा है । हमने "अदर्शन "का अर्थ "न सुनाई देना " किया है । इसका कारण यह है कि यह "शब्दानुशासन "अर्थात् शब्द शास्त्र है । इसमें शब्दों के साधु (ठीक)असाधु (गलत) होने का विवेचन है । शब्द कान से सुने जाते हैं, आँख से देखे नहीं जाते अत: यहाँ पर "अदर्शन "का अर्थ "न सुनाई देना "है । ऐसा अर्थ करने पर "दृश् " धातु को ज्ञानार्थक मानना चाहिए । ज्ञान -आँख, कान,नाक आदि सब से हो सकता है । "शब्दानुशासन " का अधिकार होने से हम यहाँ ज्ञान कान विषयक ही मानेंगे । यहाँ  "   स्थानेऽन्तरतम "(१७) से स्थान शब्द लाने का तात्पर्य यह है कि विद्यमान का अदर्शन ही लोप संज्ञक हो, अविद्यमान का अदर्शन लोपसंज्ञक न हो ।
यथा- दधि,मधु यहाँ "क्विप् "प्रत्यय कभी नहीं हुआ अत: उसका अदर्शन है । यदि पीछे से स्थान शब्द न लावे तो यहाँ क्विप् प्रत्यय का अदर्शन होने से प्रत्ययलक्षणद्वारा "ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् "(७७७)से तुक् प्राप्त होगा जो अनिष्ट है, यह "स्थान "शब्द की अनुवृत्ति पर विद्यमान के अदर्शन की ही लोपसंज्ञा करनी युक्त है ।
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क्रमश: ............................................
अगला सूत्र- ३ तस्य लोप: १।३।९

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

अष्टाध्यायी

वृद्धिरादैच् १/१/१

काशिका -वृद्धिशब्दः संज्ञात्वेन विधीयते, प्रत्येकम् आदैचां वर्णानां सामान्येन तद्भावितानाम्, अतद्भावितानां च। तपरकरणम् ऐजर्थम् तादपि परः तपरः इति, खट्वैडकादिषु त्रिमात्रचतुर्मात्रप्रसङ्ग-निवृत्तये। आश्वलायनः। ऐतिकायनः। औपगवः। औपमन्यवः। शालीयः। मालीयः। वृद्धिप्रदेशाः -- {सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु (७।२।१)} इत्येवम् आदयः॥

सिद्धि १ आश्वलायनः(अश्वलायन का पुत्र)
अश्वल + फक्
आश्वल + आयन
आश्वलायन + सु
आश्वलायनः ।।
यहाँ अश्वल शब्द से अपत्य अर्थ में "नडादिभ्य: फक् "(४/१/८८) से फक् प्रत्यय 'आयनेय..(७/१/२) से फ के स्थान में आयन आदेश और 'किति च '(७/१/११८)से आदि वृद्धि होती है ।

सिद्धि २ शालीय: (शाला में रहने वाला गृहस्थ )
शाला + छ
शाल् + ईय
शालीय + सु
शालीय: ।।
यहाँ शाला शब्द के आदि में वृद्धिसंज्ञक आकार के होने से उसकी " वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद् वृद्धम् "(१/१/७३) से वृद्ध संज्ञा होकर "वृद्धाच्छ: "(४/१/११४) से छ प्रत्यय होता है । छ के स्थान में आयनेय..(७/१/२)से ईय आदेश होता है ।
ऐसे ही माला शब्द से -मालीय: (माला में रहने लाला पुष्प)

सिद्धि ३ऐतिकायन: (इतिक का पुत्र)
इतिक + फक्
ऐतिक + आयन
ऐतिकायन + सु
ऐतिकायन: ।।
यहाँ इतिक शब्द से अपत्य अर्थ में "नडादिभ्य: फक्  "(४/१/८८) से फक् प्रत्यय, आयनेय ..(७/२/११८) से आदि वृद्धि होती है ।

सिद्धि ४ औपगव: (उपगु का पुत्र)
उपगु + अण्
औपगो + अ
औपगव + सु
औपगव: ।।
यहाँ उपगु शब्द से अपत्य अर्थ में "तस्यापत्यम् "(४/१/९२) से अण् प्रत्यय और "तद्धितेष्वचामादे: "(७/२/११७) से आदि वृद्धि होती है । यहाँ "ओर्गुण: "(६/४/१४६) से उपगु के अन्त्य उकार को गुण हो जाता है ।

{विशेष} --आदैच पद के मध्य में "त " किसलिए लगाया गया है? आ+ त् + ऐच् ।अष्टाध्यायी में अनेक स्थानों पर "त " लगाकर वर्णों का निर्देश किया गया है ।उन वर्णों तपर कहते हैं। यहां आ और ऐच् के मध्य में त् लगाया गया है । इसलिए देहली दीपक न्याय से आ और ऐच्  दोनों तपर है ।जैसे घर देहली पर रखा हुआ दीपक दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाता है ,वैसे यहां दोनों के मध्य में विद्यमान त,आ और ऐच्  दोनों को तपर करता है ।" त परो यस्मात् स तपर:,तादपि परस्तपर: । " जिससे त परे है उसे तपर कहते हैं और जो त से परे है वह भी तपर कहलाता है ।अष्टाध्यायी में वर्णों को तपर करने का प्रयोजन यह है कि "तपरस्तत्कास्य " अर्थात तपर वर्ण तत्काल के ग्राहक होते हैं ।हृस्व,दीर्घ, प्लुत जिस भी काल के वर्ण के साथ त् लगाया जाता है वह उसी काल के उदात्त,अनुदात्त, स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक वर्णों का ग्राहक होता है ।

इस प्रकार तपर वर्ण अपने ६ प्रकार के स्वरूप का ग्रहण करता है, शेष का नहीं ।अतः यहां छह प्रकार के आकार ऐकार और औकार की वृद्धि संज्ञा का विधान किया है ।
इसे निम्नलिखित अकार के १८ भेदों की रीति से यथावत् समझ लेना चाहिए -----

    स्वर      हृस्व    दीर्घ     प्लुत
१ उदात्त     अ      आ       अ३
२अनुदात्त   अ      आ       अ३
३स्वरित      अ      आ       अ३
( निरनुनासिक)
४ उदात्त     अ ँ   आ ँ  अ ँ३
५अनुदात्त   अ ँ   आ ँ  अ ँ३
६ स्वरित    अ  ँ  आ ँ  अ ँ ३
(सानुनासिक)
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लघुसिद्धान्तकौमुदीं सूत्र १


नत्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम्।

पाणिनीय प्रवेशाय लघु सिद्धांत कौमुदीम्।

अथ प्रत्याहार सूत्राणि 

अइउण्। ऋलृक्। एेओड.। एेऔच्। हयवरट्। लण्। ञमङणनम्। झभय्। घढधष्। जबगडदश्। खफछठथचटतव्। कपय्। शषसर्। हल्।

सँज्ञा-सूत्रम्-१ हलन्त्यम् ।१।३।३।।

उपदेशेऽन्त्यं हलित्स्यात्। उपदेश आद्योच्चारणम्। 

सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र॥

अर्थ-उपदेश में विद्यमान अन्त्य हल् इत्संज्ञक हो । धातु आदि के आद्य उच्चारण को उपदेश कहते हैं ।सूत्रों में जो पद न हो (पर वृत्ति में दिखाई दे) वह पद सर्वत्र पिछले (या कहीं कहीं अगले) सूत्रों से ले लेना चाहिए ।

व्याख्या -इस व्याकरण के कर्त्ता महामुनि पाणिनि हैं ।इन्होंने "अष्टाध्यायी "नामक जगत् प्रसिद्ध ग्रन्थ रचा है ।इस ग्रन्थ में ८ अध्याय और प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं । अर्थात् सब मिला के ३२ पाद अष्टाध्यायी में है । हर एक पाद में भिन्न -भिन्न संख्याओं में सूत्र हैं । समग्र अष्टाध्यायी की सूत्र संख्या ३९६५ है । प्राचीन काल में यह सम्पूर्ण अष्टाध्यायी कण्ठस्थ की जाती थी ।

इस ग्रन्थ में अष्टाध्यायी के सूत्र बिखरे हुए हैं । उन सूत्रों के आगे तीन अंक लिखे हैं । इनमें से पहला अष्टाध्यायी के अध्याय का सूचक,दूसरा पाद का सूचक तथा तीसरा सूत्र सूचक समझना चाहिये ।

जैसे -हलन्त्यम् १।३।३।।

यहाँ १ से तात्पर्य प्रथमाध्याय, ३ से तृतीयपाद और अन्तिम ३ से तात्पर्य तीसरे सूत्र से है ।

#१--सबसे पहले सूत्रों का पदच्छेद करना चाहिए जैसे--हलन्त्यम् १।३।३।।

हल् ।अन्त्यम् ।

आदिरन्त्येन सहेता १।१।७०

आदि । अन्त्येन् । सह । इता ।।

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★ कई स्थानों पर पिछले सूत्रों से तथा कहीं कहीं अग्रिम सूत्रों से भी पद ले लिया जाता है ।

जैसे--हलन्त्यम् १।३।३।। यहाँ पिछले "उपदेशेऽजनुनासिक इत् "सूत्र से "उपदेशे "और "इत् " ये २ पद आते हैं । 

२---- पदच्छेद के बाद उन पदों की विभक्तियाँ जाननी चाहिए ।

जैसे--हलन्त्यम् १।३।३।।

उपदेशे ७।१ अन्त्यम् १।१ हल् १।१ इत् १।१

यहाँ पहले अंक से "विभक्ति "और दूसरे से "वचन " समझना चाहिये ।

३----पदच्छेद और विभक्ति जानने के पश्चात् समास जानना चाहिए । समास कहीं होता है, कहीं नहीं होता । यथा "तस्य लोप: " इस सूत्र में कोई समास नहीं । "तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् " आदि सूत्रों में समास है ।

४----इतना जान लेने के पश्चात् महामुनि पाणिनि के अर्थ करने के नियमों का ध्यान रखकर सूत्र का अर्थ करना चाहिए । पाणिनि के वे नियम प्राय ये है -------

1 षष्ठी स्थानेयोगा १।१।४९

2 तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य १।१।६६

3 तस्मादित्युत्तरस्य १।१।६७

4 अलो ऽन्त्यस्य १।१।५२

5 आदेः परस्य १।१।५४

6 इको गुणवृद्धी १।१।३

7 अचश्च। , १।२।२८

8 येनविधिस्तदन्तस्य। , १।१।७१आदि

इन सबको यथास्थान स्पष्ट किया जायेगा ।

° पुनः --हलन्त्यम् १।३।३।।

उपदेशे ७।१ ["उपदेशेऽजनुनासिक इत् "सूत्र से ]

अन्त्यम् १।१

हल् १।१ 

इत् १।१["उपदेशेऽजनुनासिक इत् "सूत्र से ]

अर्थ-उपदेश में विद्यमान अन्त्य हल् इत्संज्ञक होगा । यदि उपदेश में कहीं हमें अन्त्य मिलेगा तो वह इत्संज्ञक होगा । 

उपदेश क्या है??

"उपदेश आद्योच्चारणम् " आद्योच्चारण उपदेश होता है । यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है -आद्यानाम् उच्चारणम् । जो आद्यों अर्थात् शिव,पाणिनि, कात्यायन तथा पतंजली का उच्चारण है,उसे उपदेश कहते हैं, उनका कथन है कि प्रत्याहार सूत्र, धातुपाठ,गणपाठ,प्रत्यय,आगम और आदेश ये सब उपदेश हैं । इनमें अन्त्य हल् इत्संज्ञक होता है ।

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क्रमश: .......................

अगला सूत्र -२अदर्शनं लोप: १।१।६०।।

सरल भाषा संस्कृतम्

नत्वा सरस्वतीं देविं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् ।
पाणिनीय प्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् ।।