सरलभाषा संस्कृतम्

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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

लघुसिद्धान्तकौमुदीं सूत्र २



२ अदर्शनं लोपः २, १।१।५९
प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात्।
अर्थ -विद्यमान का अदर्शन लोप सञ्ज्ञक होता है ।
व्याख्या -स्थानस्य ६।१[' स्थानेऽन्तरतम "सूत्र से "स्थाने पद आकर विभक्तिविपरिणाम से षष्ठ्यन्त हो जाता है ।]
अदर्शनम् १।१
लोप: १।१
★विद्यमान का सुनाई न देना लोप होता है । यहाँ अदर्शन संज्ञी का तथा लोप संज्ञा है । हमने "अदर्शन "का अर्थ "न सुनाई देना " किया है । इसका कारण यह है कि यह "शब्दानुशासन "अर्थात् शब्द शास्त्र है । इसमें शब्दों के साधु (ठीक)असाधु (गलत) होने का विवेचन है । शब्द कान से सुने जाते हैं, आँख से देखे नहीं जाते अत: यहाँ पर "अदर्शन "का अर्थ "न सुनाई देना "है । ऐसा अर्थ करने पर "दृश् " धातु को ज्ञानार्थक मानना चाहिए । ज्ञान -आँख, कान,नाक आदि सब से हो सकता है । "शब्दानुशासन " का अधिकार होने से हम यहाँ ज्ञान कान विषयक ही मानेंगे । यहाँ  "   स्थानेऽन्तरतम "(१७) से स्थान शब्द लाने का तात्पर्य यह है कि विद्यमान का अदर्शन ही लोप संज्ञक हो, अविद्यमान का अदर्शन लोपसंज्ञक न हो ।
यथा- दधि,मधु यहाँ "क्विप् "प्रत्यय कभी नहीं हुआ अत: उसका अदर्शन है । यदि पीछे से स्थान शब्द न लावे तो यहाँ क्विप् प्रत्यय का अदर्शन होने से प्रत्ययलक्षणद्वारा "ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् "(७७७)से तुक् प्राप्त होगा जो अनिष्ट है, यह "स्थान "शब्द की अनुवृत्ति पर विद्यमान के अदर्शन की ही लोपसंज्ञा करनी युक्त है ।
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क्रमश: ............................................
अगला सूत्र- ३ तस्य लोप: १।३।९

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