सरलभाषा संस्कृतम्

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मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

लघुसिद्धान्तकौमुदी


तस्य लोपः ३, १।३।९
तस्येतो लोपः स्यात्। णादयोऽणाद्यर्थाः।

अर्थ-उस इत्संज्ञक का लोप होता है । ण् आदि "अण् "आदि के लिए है ।

व्याख्या -तस्य ६।१
इत् ६।१ [' उपदेशेऽजनुनासिक इत् "सूत्र से "प्रथमान्त "इत् "पद आकर विभक्तिविपरिणाम से षष्ठ्यन्त हो जाता है ।]
लोप १।१
★(तस्य) उस (इत्)इत्संज्ञक का (लोप)लोप होता है ।
अब यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि इस सूत्र में "तस्य "पद न लेते तो भी अर्थ में कोई हानि नहीं हो सकती थी, क्योंकि "इत् "पद की अनुवृत्ति तो आ ही रही है । इसका समाधान यह है कि यदि "तस्य "पद ग्रहण न करते तो इत्संज्ञक के अन्त्य वर्ण का लोप होता, सम्पूर्ण इत्संज्ञक का लोप नहीं होता।
तथाहि- " ञिमिदा स्नेहने, टुनादि समृद्धौ, डुकृञ करणे "यहाँ "आदिर्ञिटुडव "(४६२) सूत्र द्वारा ञि, टु, डु, की इत्संज्ञक होकर लोप प्राप्त होने पर "अलोऽन्त्यस्य "(२१) सूत्र द्वारा अन्त्य इकार,उकार का लोप होता, जो कि अनिष्ट है ।अब यदि सूत्र में "तस्य "पद ग्रहण करते हैं तो यह दोष नहीं आता क्योंकि आचार्य का "तस्य "यह कहना जतलाता है कि आचार्य सारे का लोप चाहते हैं केवल अन्त्य का नहीं ।

अब इस सूत्र से ण्, क्, ड्, च्, आदि इतों का लोप प्राप्त होता है ।इस पर कहते हैं कि इनका लोप नहीं करना है, क्योंकि इनसे अण् आदि प्रत्याहार बनाये जायेंगे । यदि इनका लोप करना होता तो ग्रहण किसलिये करते? अतः इनका लोप नहीं करना चाहिये ।
   अब इत्संज्ञकों से प्रत्याहार बनाने के लिए अग्रिम सूत्र लिखते हैं -------
४ आदिरन्त्येन सहेता ।१।१।७१
क्रमश: .............................................
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