सरलभाषा संस्कृतम्

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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

अष्टाध्यायी सूत्र २

२ अदेङ् गुण:

अत् च एङ् च अदेङ्


अर्थः॥

अ ए ओ इति एतेषां वर्णानां गुणसंज्ञा भवति

★★अदेङ्गुणः। तपरकरणमिह सर्वार्थम्। तेन "गङ्गोदक"मित्यत्र त्रिमात्रो न। "तरती"त्यत्र त्वकार एव, नतु कदाचिदाकारः। नच प्रमाणत आन्तर्येण नियमसिद्धिः, रपरत्वे कृते एकस्याध्यर्धमात्रत्वादपरस्यार्धतृतीयमात्रत्वात्। गुणप्रदेशास्तु-"आद्गुणः" "अतो गुणे" इत्यादयः।

उदाहरणम्॥

अकार: -कर्त्ता, हर्ता ।
एकार: -जेता, नेता ।
ओकार: -होता, पोता ।

सिद्धि १- कर्त्ता
कृ+तृच्
कर् + तृ
कर्तृ +सु
कर्त् अनङ् +स्
कर्तन् + स्
कर्तान् + स्
कर्त्ता ।।
यहाँ डुकृञ् करणे (तनादि. उ.)धातु से "ण्वुल् तृचौ "(३/१/१३३) से तृच् प्रत्यय करने पर "सार्वधातुकार्धधातिकयो: "(७/३/८४) से 'कृ' के ऋ को 'अ 'गुण होता है और वह "उरण रपर: "(१/१/५१) से रपर हो जाता है -अर् ।यहाँ "ऋदुशनस् "(७/१/९४) से कर्तृ के ऋ को अनङ् आदेश ,"सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ "(६/४/८) से नकारान्त की उपधा को दीर्घ "हल्ङ्याभ्याब्यो दीर्घात् ..(६/१/६८) से सु का लोप और "नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य "(८/२/७) से न् का लोप होता है । कर्त्ता ।करने वाला ।। इसी प्रकार हृञ् हरणे (भ्वा.उ.)धातु से "हर्ता "शब्द सिद्ध होता है ।

सिद्धि २ जेता
जि+तृच्
जे+तृ
जेत अनङ् +सु
जेतन्+स्
जेतान्+स्
जेता ।।
यहाँ जि जये (भ्वा. उ.)धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय और "सार्वधातुकार्धधातुकयो: "से 'जि'के 'इ'को ए गुण होता है ।शेष कार्य पूर्ववत् है । इसी प्रकार "णीञ् "प्रापणे "(भ्वा. उ.)धातु से "नेता "शब्द सिद्ध होता है ।

सिद्धि ३ होता
हु+तृच्
हो+तृ
होतृ+सु
होत् अनङ् +सु
होता ।।
यहॉ "हु दानादनयोरादाने चेत्येके(अदा.प.)धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय करने पर "सार्वधातुकार्धधातुकयो: "से हु के 'उ' को 'ओ' गुण होता है ।शेषकार्य पूर्ववत् है । इसी प्रकार पूञ् पवने (क्र्या.उ.)धातु से "पोता शब्द सिद्ध होता है ।

{विशेष}---अदेङ् पद में अ और एङ् के मध्य में त् लगाया गया है । अतः पूर्वोक्त विधि से अ और एङ् दोनों तपर हैं । ये तपर होने से "तपरस्तत्कालस्य "से तत्काल का ग्रहण करते हैं । अत: यहाँ उदात्त, अनुदात्त,स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक भेद से ६ प्रकार के अकार,एकार और ओकार की गुण संज्ञा होती है ।

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